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HC की कड़ी टिप्पणी: चयनित नायब तहसीलदार को नियुक्ति न देना अनुचित

ग्वालियर ग्वालियर हाईकोर्ट(MP High Court) की एकल पीठ ने नायब तहसीलदार के पद पर चयनित होने के बाद भी नियुक्ति नहीं देने पर कड़ी नाराजगी जाहिर की। कोर्ट ने याचिकाकर्ता को 30 दिन में नायब तहसीलदार के पद पर पोस्टिंग देने का आदेश देते हुए कहा कि यह एक ऐसा ज्वलंत मामला है, जहां राज्य शासन के अधिकारियों ने मनमाना, दुर्भावनापूर्ण, निरंकुश रवैया दिखाया। 2016 में नायब तहसीलदार के पद पर चयन के बाद वह अपनी सफलता का पूरा आनंद नहीं ले सका। उसके जीवन के सात साल बर्बाद कर दिए। न अभ्यावेदन का निराकरण किया, न नियुक्ति दी। इसलिए याचिकाकर्ता 7 लाख रुपए की क्षतिपूर्ति (हर्जाना) पाने अधिकार रखता है। हर्जाने की राशि उस अधिकारी से वसूली जाएगी, जिसने मनमाना रवैया अपनाया। विभाग की मनमानी कांच मिल रोड ग्वालियर निवासी अतिराज सेंगर पीएससी द्वारा वर्ष 2013 में तहसीलदार पद पर भर्ती के लिए आयोजित परीक्षा में शामिल हुए थे। 2016 में रिजल्ट घोषित किया गया। अतिराज सेंगर को सामान्य श्रेणी की प्रतिक्षा सूची (श्रवण बाधित) में 16 नंबर पर रखा गया। इस श्रेणी में चयनित एक मात्र व्यक्ति अमित कुमार तिवारी थे, लेकिन उन्होंने पदभार ग्रहण नहीं किया। इस कारण एमपी पीएससी ने अतिराज के नाम की अनुशंसा की। विभाग को 2018 में अनुशंसा प्राप्त हो गई। नियुक्ति के लिए राजस्व विभाग में पत्राचार किया, लेकिन राजस्व विभाग ने उनके अभ्यावेदन पर ध्यान नहीं दिया, उन्हें नियुक्ति नहीं दी। इसके चलते हाईकोर्ट में याचिका दायर की। एक साल बाद दी थी सूची राज्य शासन ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि चयन सूची एक साल के लिए थी। 2016 में शुरू होकर 2017 में समाप्त हो गई। इसलिए नियुक्ति नहीं दी जा सकती है। पीएससी ने परिणाम घोषित होने के एक साल बाद नाम की सिफारिश की थी। जब वह सूची अस्तित्व में नहीं थी, तो याचिकाकर्ता को नियुक्ति का सवाल ही नहीं होता है, इसलिए याचिका खारिज किए जाने योग्य है।

पुजारी को मंदिर की संपत्ति का मालिक नहीं माना जा सकता, केवल पूजा और प्रबंधन का होता है अधिकार: हाईकोर्ट

बिलासपुर  छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने मंदिर की संपत्ति को लेकर एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि पुजारी को मंदिर की संपत्ति का मालिक नहीं माना जा सकता। कोर्ट ने कहा कि पुजारी केवल देवता की पूजा करने और मंदिर का सीमित प्रबंधन करने के लिए नियुक्त एक प्रतिनिधि होता है, न कि स्वामी। बता दें कि यह फैसला जस्टिस बिभु दत्ता गुरु की एकलपीठ ने उस याचिका पर सुनाया, जो धमतरी जिले के श्री विंध्यवासिनी मां बिलाईमाता मंदिर के पुजारी परिषद अध्यक्ष मुरली मनोहर शर्मा ने दायर की थी। शर्मा ने राजस्व मंडल, बिलासपुर के 3 अक्टूबर 2015 के आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें उनकी पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी गई थी। विवाद की शुरुआत तब हुई जब मुरली मनोहर शर्मा ने तहसीलदार के समक्ष आवेदन देकर अपना नाम मंदिर ट्रस्ट के रिकॉर्ड में दर्ज करने की मांग की थी। तहसीलदार ने उनके पक्ष में आदेश जारी किया, लेकिन एसडीओ ने इस आदेश को रद्द कर दिया। इसके खिलाफ शर्मा ने अपर आयुक्त रायपुर के समक्ष अपील की, जो खारिज कर दी गई। इसके बाद उन्होंने राजस्व मंडल में पुनरीक्षण याचिका दाखिल की, जिसे भी खारिज कर दिया गया। शर्मा ने हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर यह दलील दी कि तहसीलदार का आदेश न्यायोचित था और अन्य अधिकारियों ने मामले की सही समीक्षा नहीं की। हाईकोर्ट की टिप्पणी हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि विंध्यवासिनी मंदिर ट्रस्ट समिति 23 जनवरी 1974 से विधिवत पंजीकृत संस्था है और वही मंदिर की संपत्ति का वैधानिक प्रबंधन करती है। कोर्ट ने 21 सितंबर 1989 को सिविल जज, वर्ग-2, धमतरी द्वारा पारित एक पुराने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि ट्रस्ट समिति ट्रस्ट की संपत्ति की देखरेख के लिए किसी भी व्यक्ति को प्रबंधक नियुक्त कर सकती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उस व्यक्ति को संपत्ति का स्वामित्व प्राप्त हो गया। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि पुजारी एक “ग्राही” यानी धारक होता है, जो मंदिर की पूजा संबंधी गतिविधियों के लिए नियुक्त होता है। यदि वह अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता, तो यह अधिकार वापस भी लिया जा सकता है। इसलिए पुजारी को मंदिर की भूमि या संपत्ति का मालिक नहीं माना जा सकता। यह निर्णय उन मामलों के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है जहां मंदिर की संपत्ति को लेकर पुजारियों और ट्रस्ट के बीच विवाद खड़े होते हैं। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि धार्मिक सेवा का अधिकार और मालिकाना हक अलग-अलग बातें हैं और पुजारी केवल सेवा के लिए नियुक्त व्यक्ति है, स्वामी नहीं।

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट का फैसला दो डिग्रियों की परीक्षा तिथि में संशोधन की याचिका पर विचार का अधिकार नहीं

बिलासपुर  छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने परीक्षा कार्यक्रम बदलवाने की याचिका के मामले में एक अहम निर्णय दिया है। निर्णय में स्पष्ट किया है कि दो शैक्षणिक पाठ्यक्रमों की पढ़ाई कर रहे छात्रों को परीक्षा कार्यक्रम में बदलाव के लिए विश्वविद्यालयों को निर्देश देने का कोई वैधानिक अधिकार नहीं है। अदालत ने याचिका को रिट क्षेत्राधिकार के अंतर्गत विचार योग्य नहीं मानते हुए खारिज कर दिया। यह आदेश 20 जून 2025 को न्यायमूर्ति अरविंद कुमार वर्मा की एकलपीठ ने पारित किया। याचिका सत्येन्द्र प्रकाश सूर्यवंशी द्वारा दायर की गई थी, जो स्वयं कोर्ट में उपस्थित हुए। उन्होंने बताया कि वे पं. सुंदरलाल शर्मा (ओपन) विश्वविद्यालय से एमएसडब्ल्यू और अटल बिहारी वाजपेयी विश्वविद्यालय से एलएलबी (तृतीय वर्ष, द्वितीय सेमेस्टर) की पढ़ाई साथ-साथ कर रहे हैं। ऐसे में दोनों संस्थानों में एक साथ परीक्षा होने से समस्या हो रही है। लेकिन जब परीक्षा का समय आया, तो दोनों विश्वविद्यालयों की चार परीक्षाएं एक ही दिन और समय पर आ गईं. सत्येन्द्र के सामने एक बड़ी दुविधा थी कि अब वह किस परीक्षा में बैठे? इस पर उन्होंने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और अदालत ने छात्र के खिलाफ फैसला लिया. कोर्ट में दायर की याचिका समस्या का समाधान ढूंढते हुए सत्येन्द्र ने छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उन्होंने कोर्ट में खुद उपस्थित होकर अपनी बात रखी. सत्येन्द्र ने यूजीसी की अधिसूचना और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि एक-साथ दो डिग्रियां ली जा सकती हैं. इतना ही नहीं, याचिकाकर्ता ने बताया कि एक-साथ दोनों एग्जाम डेट का होना उनके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनुच्छेद 21) का उल्लंघन है. विश्वविद्यालयों और राज्य का पक्ष राज्य सरकार और दोनों विश्वविद्यालयों के वकीलों ने याचिका का कड़ा विरोध किया. उनका कहना था कि परीक्षा कार्यक्रम बनाना विश्वविद्यालय का प्रशासनिक अधिकार है और इसमें दखल देना न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है. कोर्ट का फैसला: अधिकार की सीमाएं 20 जून 2025 को न्यायमूर्ति अरविंद कुमार वर्मा की एकलपीठ ने इस याचिका पर फैसला सुनाते हुए साफ किया कि यदि कोई छात्र एक साथ दो शैक्षणिक पाठ्यक्रमों की पढ़ाई कर रहा है, तो उसे यह अधिकार नहीं है कि वह परीक्षा तिथियों में टकराव होने पर विश्वविद्यालयों से बदलाव की मांग करे. अदालत ने यह भी कहा कि इस प्रकार की मांग को लेकर दाखिल की गई रिट याचिका न्यायिक क्षेत्राधिकार के अंतर्गत विचार योग्य नहीं है. याचिका खारिज, लेकिन सवाल कायम अंततः सत्येन्द्र की याचिका खारिज कर दी गई. हालांकि, इस फैसले ने उन हजारों छात्रों के सामने बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है, जो एक साथ दो डिग्रियां करने का सपना देख रहे हैं. क्या भविष्य में विश्वविद्यालय ऐसे छात्रों के लिए परीक्षा कार्यक्रम में लचीलापन दिखाएंगे? यह तो वक्त ही बताएगा.